हे हिंदी !
आखिर तुम सिद्ध हो ही गयी
एक पूर्ण भारतीय स्त्री,
सकुचाई, शरमाई
घर की चाहदीवारी में कैद
ज़रूरी काम निबटाती हुई
दिख जाती हो यदा कदा बाहर भी
अनिवार्य रूप से,
कहीं राशन की दूकान पर
या आरती के थाल के साथ
मंदिर की ओर बढ़ती ।
मगर ....
इससे पहले
कि लिखी जाएँ
तुम्हारी भाषा में
स्त्री उत्पीडन की कथाएँ
या नारी मुक्ति के नारे,
बाहर निकल आओ
मुक्त हो कर,
खडी हो जाओ
हर गली, नुक्कड़, चौराहे पर
और लिख दो 'आज़ादी'
हर उड़ती हुई तितली के पंखो पर
ध्यान रहे ....
ये जंग स्वयं ही लड़नी है
यहाँ कोई नियम नहीं
क़ानून के पास भी
तुम्हारे पक्ष में !!