हिन्दी मन को बोलती है
हिन्दी है ये इसके आगे
बंद सबकी बोलती है
दिनकर, दुष्यंत, महादेवी की
कृतियाँ पहन कर डोलती है
अनुभूति की अभिव्यक्ति के
नित नए दरीचे खोलती है
जब भी सुनो देवों की बोली
सच्ची, सरल, मन की भोली
जैसे माँ कुछ बोलती है
स्वर में मिश्री घोलती है
इस धरा के कोने कोने
चलती हों जितनी जुबानें
बुद्धि गुणों को तोलती है
हिन्दी ही मन को बोलती है.
-परमेश्वर फुंकवाल
१० सितंबर २०१२
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