मातृभाषा के प्रति


जो टूटे न-बिखरे न

पान की दुकान पर
अक्सर
अंग्रेजी में बात करते
मेरे दोस्त
अपने मूल्यांकन को
आम आदमी के बीच नहीं
ऊँचे दर्जे के फ्रेम में
मढ़वाना चाहते हैं--

वे नहीं जानते
ऊँचे दर्जे के आदमी
बनने की कोशिश
पालतू मछलियों की तरह है

वे नहीं जानते
पारदर्शी फ्लास्क में तैरना
ड्राईंग रूम तक सीमित है
मेरे दोस्त
औपचारिकता की भूख
अंग्रेजी से मिटाना
और फिर
उंगलियाँ हिलाकर खुश होना
तुम्हारी आदत जरुर है
पर जरुरी है तुम्हारा
निजीपन से जुड़ना---

मेरे दोस्त
अपनी पहचान
आम आदमी के बीच होती है
पीतल के बर्तन पर
कलई कराना
चाँदी बनाना नहीं है
श्रेष्ठता दिखाना है...

इस दिखानेपन में
हम अपनी भाषा के संबंध से
टूटते जा रहे हैं
यह टूटन हमारे कंधे पर है...

मेरे दोस्त
आओ कंधा बदलें
एक यात्रा शुरू करें
जो हमारी अपनी हो
जो टूटे न
बिखरे न...

--ज्योति खरे

१० सितंबर २०१२

 

 

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