यही तो अपनी हिंदी है
जब तक सूर्योदय न हुआ था, तभी तक दीप की शोभा थी।
जब तक हिंदी ना पनपी थी, तब तक कईं भाषाएँ थीं।
जब से इसको पाया है, तभी से अपनापन आया है।
भारतीय संस्कृति को इसने जन-जन तक पहुँचाया है।
गंगा माँ की शोभा जैसी जोश ले आगे बढ़ी है यह।
सब बहनों से बड़ी भी है, सब से आगे खड़ी भी है।
सब भाषा की बिंदी है, यही तो अपनी हिंदी है।
घर बाहर और हाट बाजार करते हैं सब इसको प्यार।
राग द्वेष को इसने मिटाया, सभी जाति को गले लगाया।
रात में दिन का काम है करती, चित्त में ज्ञान प्रकाश है भरती।
घर बैठे है सैर कराती, बिना यान के चलती-फिरती।
राम रहीम करीम हो कोई, वेद कुरान बाइबल हो जोई।
झगड़ा मजहब कितने हों किंतु भाषा सभी की हिंदी है।
यह सब भाषा की बिंदी है, यही तो अपनी हिंदी है।
भारत से उड़ कर सूरीनाम में आयी है तू बड़े काम में।
हृदय अपना हुआ पवित्तर, जब से सीखा तुम को पढ़-पढ़।
तुझ से ही मुझे ज्ञान मिला, ऐसा अमृत पिला दिया।
अब तू ही मेरी साकी है, इसी नशे में रहना चाहूँ,
जब तक जीवन बाकी है।
मान दान और वेद-पुरान,सगरो होता तेरा आख्यान
ऋषि-मुनि जप-जोग निदान, सबके तू ही तन का प्राण।
तू ध्यानमग्न की बिंदी है, यही तो अपनी हिंदी है।
(सूरीनाम के जाने माने कवि श्री अमर सिंह रमण जी का सूरीनाम में हिंदी साहित्य के
विकास को गति प्रदान करने में विशेष योगदान रहा है, उनके द्वारा १९८४ में
रचित कविता प्रस्तुत है-)
अमर सिंह रमण
१० सितंबर २०१२
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