१.
गंगा-जल है औषधी, हरता मन की पीर।
गंगा में स्नान कर, बने निरोग शरीर।
बने निरोग शरीर, पाप सारे मिट जाते।
जिनको भी विश्वास, मुरादें मन की पाते।
‘ठकुरेला’ कविराय, करे सबका मन चंगा।
दैविक, दैहिक, ताप, सहज हरती माँ गंगा।।
२.
गंगा जीवनदायिनी, गंगा सुख का मूल।
गंगाजल से फसल हैं, हरियाली, फल, फूल।।
हरियाली, फल, फूल, उछलता गाता जीवन।
खेतों में धन धान्य, और भी अनजाने धन।
‘ठकुरेला’ कविराय, मनुज कितना बेढंगा।
करे प्रदूषित नीर, अचंभित देखे गंगा।।
३.
केवल नदिया ही नहीं, और न जल की धार।
गंगा माँ है, देवि है, है जीवन आधार।।
है जीवन आधार, सभी को सुख से भरती।
जो भी आता पास, विविध विधि मंगल करती।
‘ठकुरेला’ कविराय, तारता है गंगा-जल।
गंगा-अमृत-राशि, नहीं यह नदिया केवल।
४.
भागीरथ सी लगन हो, हो अनवरत प्रयास।
स्वर्ग छोड़कर सहज ही, आती गंगा पास।।
आती गंगा पास, मनोरथ पूरे होते।
उगते सुख के वृक्ष, बीज जब मन से बोते।
‘ठकुरेला’ कविराय, सुगम हो जाता है पथ।
मिली सफलता, कीर्ति, बना जो भी भागीरथ।।
-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
२८ मई २०१२ |