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उतरी गंगा स्वर्ग से





 

उतरी गंगा स्वर्ग से, लिए वेगमय धार।
घनी जटाएँ खोलकर, शिव ने झेला भार।
शिव ने झेला भार, उसे माथे बैठाया,
मृत्युलोक में भेज, धरा को स्वर्ग बनाया।
अमृत जल का घूँट, करे हर रोगी चंगा,
लिए वेगमय धार, स्वर्ग से उतरी गंगा।

मोक्ष दायिनी हो तुम्हीं, तुम ही तारनहार।
स्वर्ग लोक से चल पड़ी, किया हिमालय पार।
किया हिमालय पार, अवतरित हुई ज़मीं पर।
धाम बना हरिद्वार, छा गई सबके मन पर।
दिये स्वस्थ वरदान, जगत को पाप नाशिनी,
तुम ही तारनहार, तुम्हीं हो मोक्ष दायिनी।

मोक्ष सभी को चाहिए, गंगा तेरे द्वार।
मगर तुम्हारे द्वार का, कौन करे उद्धार।
कौन करे उद्धार, पुण्य पाने सब आते,
कई प्रदूषित तत्व, तुम्हें अर्पण कर जाते।
निर्मलता की बात, सूझती नहीं किसी को,
सिर्फ तुम्हारे द्वार, चाहिए मोक्ष सभी को।

चलिये मित्रों प्रण करें, हम भारत के लाल।
गंगा फिर निर्मल बने, ऐसा करें कमाल।
ऐसा करें कमाल, सभी मन से हों तत्पर,
हर संभव श्रमदान, करें सब साथी मिलकर।
पूरा हो अभियान, घरों से आज निकलिए
हम भारत के लाल, प्रण करें मित्रों चलिये।

अगर मानते आप हैं, गंगा पावन धाम।
रोग दोष औ पाप का, होता यहाँ निदान।
होता यहाँ निदान, क्यों किया दूषित जल को,
बे गैरत इंसान, न सोचा अपने कल को।
शापित होंगे आप, बात क्या नहीं जानते?
निर्मल रखिए धाम, अगर हैं आप मानते।

कल्पना रामानी

२८ मई २०१२

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