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नित्य वाहिनी माँ गंगा





 

जग विश्रुत कीरति सदा, संस्कृति में सिरमौर
मेरे भारत देश-सा, देश न दूजा और
जिसके उत्तर में श्वेत वसन, प्रहरी हिमवान न सोता है
दक्षिण में उदधि अपार, अंजुरी भर चरणों को धोता है

जिसके पूरब में सुंदरवन, मेघाच्छादित अरुणांचल है
वक्षस्थल पर कल-कल करता, चंचल सुरसरिता का जल है
बहु बानी वेश अनेक रुचिर, जहाँ खान-पान बहुरंगी है
हिन्दू-मुस्लिम-सिख-जैन-ख्रीस्त, सुख-दुःख में साथी संगी हैं
ऐसा ललित-ललाम यह, चिर सुरम्य मम देश
शुक्ल पक्ष के चन्द्र-सा, पाए नित उन्मेष
सप्तदीप नवखंड में, सप्त नदी बहु ख्यात
जिनके तट पर आज भी,
होता नवल प्रभात

गंगा जमुना कावेरी सिन्धु, गोदावरी पुन्य दूकूला हैं
इस शस्य श्यामला वसुमति की, सौभाग्य सिन्धु सुखमूला हैं
माँ गंगा नदिया मात्र नही, संस्कृति की जीवन रेखा है
जिसने सूरज साम्राज्यों का, उगते और गिरते देखा है
कहते हैं जीवन यात्रा का, अंतिम पड़ाव जब आता है
गंगा जल पीकर एक बूँद, मानव मुक्ति पा जाता है
देवपगा, भागीरथी, सुरसरि तेरे नाम
जन्हुसुता, मन्दाकिनी,
सदानीर अभिराम

नंदादेवी, त्रिशूल, कामत, गिरी शिखरों से प्रसवित होकर
पावन गंगोत्री-गोमुख से, निकली हिमशैल द्रवित होकर
अविरल निर्मल शीतल हिमजल, हलचल करता चंचल प्रतिपल
मन ही मन क्षिति पर आने की, वह पुन्य कथा कहता अविरल
किन्नर, यक्षों की नगरी में, करती किलोल जलधारा है
ऋषियों से मिलने ऋषिकेश, पहुँची निज रूप सँवारा है
धवल अमल, दर्पण सरिस, हरनि सकल अघ धार
रौद्र-शांत उमगत बहत,
आ पहुंची हरिद्वार

हर की पैड़ी पर साँझ ढले, टुक सुषमा देखो प्यारी है
जल-वलयों में झिलमिल करते, लघु दीपों के बलिहारी है
तज करके रम्य घाटियों को, जड़-चेतन के तृष्णा हरने
बह चली खेत-मैदानों में, जन-जीवन के बखरी भरने
कितनी ही सरिताओं का जल, मिल एकाकार हो जाता है
तमसा कोसी गंडक यमुना, का स्वत्व कहीं खो जाता है
सदियों से तट पर तेरे, भक्ति भाव का राग
धन्य हुआ छूकर तुझे,
तीरथराज प्रयाग

मीलों अनथक यात्रा करके, तुम सागर में मिल जाती हो
जीवात्मा ज्यों परमात्मा में, पा चरम लक्ष्य खिल जाती हो
माँ गंगे तेरी महिमा तो, पुरखे लौ गाते आये हैं
सच और झूठे की परख हेतु, हम तेरी कसमें खाए हैं
तेरे ही तट पर तुलसी ने, वो रामायण अनमोल लिखा
काशी में राजा हरिश्चंद्र , सच की खातिर बिन मोल बिका
मेले ठेले के छटा, छैल-छबीले हाट
कभी कुम्भ में देखिये,
जन-आस्था के ठाट

अब कहाँ सघन रमणीक विपिन, जो तेरे तट के शोभा थे
जलचर उर्मिल उर अंतर के, जो तेरे जल की आभा थे
हा! हमने ही तेरे जल में, उच्छिष्ट जगत का घोला है
भावी पीढ़ी की दुर्गति का, खुद ही दरवाजा खोला है
जागो हे! सत्ता के स्वामी, हे जनगण! तुम क्यों मौन पड़े
माँ मोक्षदायिनी गंगा का, तुम बिन परदूषण कौन हरे
आएगा वह पुण्य दिन, पूरी होगी चाह
अक्षुण और निर्मल तेरा,
होगा पुनः प्रवाह

-रामशंकर वर्मा
४ जून २०१२

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