पतित पावनी, गंगे! निर्मल-जल-कल-रंगे! कनकाचल-विमल-धुली, शत-जनपद-प्रगद-खुली, मदन-मद न कभी तुली लता-वारि-भ्रू-भंगे! सुर-नर-मुनि-असुर-प्रसर स्तव रव-बहु गीत-विहर जल धारा धाराधर— मुखर, सुकर-कर-अंगे!
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला २८ मई २०१२
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