माँ कहती थी -
गंगा नदी नहीं
वह तो है सबकी मइया
'वही पालती-वही तारती
सुख-दुख की भी वह है साखी
वह अक्षय है -
उसने सूरज-चंदा की पत राखी'
माँ कहती थी-
'बबुआ मानो
देस हमारा सोनचिरइया'
'हिमगिरि पर जो देवा रहता
उसके जटा-मुकुट से निकसी
वही सींचती हमें नेह से
जब तपती है देह अगिन-सी’
माँ कहती थी-
‘कामधेनु वह
जो है देवताओं की गइया’
गंगाजल से माँ करती थी
शुद्ध-पवित्र रोज़ आँगन को
कहती थी - 'यह जल है पावन
इससे सींचो अपने मन को'
माँ कहती थी -
‘गंगातट पर ही
रहता है सृष्टि-रचइया'
-कुमार रवीन्द्र
४ जून २०१२ |