गंगा को अविरल बहने दो, मत छेडो इसकी धारा को,
यह उज्ज्वलता रहने दो
जन्नत से जब उतरी गंगा माँ पावनता की थी मूरत
कल-कल करती इसकी लंहरे, सचमुच में थी शीतल अमृत
गंगाधर शिव ने जटा खोल, तब इसका वेग संभाला था
इतराती, इठलाती गंगा ने, स्वर्ग यहीं रच डाला था
सब लिखा शाश्वत ग्रंथो में,
दुनिया जो कहती कहने दो
ये पाप नाशनी है गंगा, ये रोग नाशनी है गंगा
ये मोक्ष दायिनी है गंगा, ये पुण्य दायिनी है गंगा
घर घर में पुजता गंगा जल, ये स्नेह दायिनी है गंगा
गंगा-जमनी तहजीबों का, संवाहन करती है गंगा
अंधा, लालच, स्वारथ छोड़ो,
कुछ निर्मलता के गहने दो
अब इसके बेटों ने देखो, कैसी प्रलय मचाई है
लोरी गाती थी जो गंगा, वो क्रन्दन कर चिल्लाई है
रूनझुन पायल अब ना बाजे, पनघट पै ना दिखती बाला
मुल्ला पण्डित और नेता ने कितना ही शोषण कर डाला
यारों मत बाँटो घाटों को,
तट पर अच्छाई रहने दो
उजले तन पर हमने खोले, कितने भीषण विष के नाले
सिवरेजो का भी मुँह खोला, औद्योगिक कचरे भी डाले
आने वाले वर्षो में जब, सारी खुशियाँ बह जायेगी
भावी पीढी ताने देगी सूखी, गंगा रह जायेगी
सीमाएँ सारी पार हुईं,
अब और परीक्षा रहने दो
मुझको माँ कहने वालों पे, असर नही है रोने का
मेरा काम बचा है केवल, इनकी लाशे ढोने का
में हूँ एक, पाप अरबों के, तर्पण ना कर पाऊँगी
मेरा तर्पण कौन करेगा, बेटा जब मर जाऊँगी
मृत्यु शैया पैर लेटी हूँ,
अन्तिम साँसें लेने दो
किशोर कुमार पारीक
२८ मई २०१२ |