बहती रहो यूँ ही कहती रहो
लोक में देव-जग की कथाएँ
गंगा तुम्हें सौ दुआएँ !
शरद-पूर्णिमा-सी उजाली जियो तुम
कुमुदनी-सी महको जहाँ भी रहो तुम
कूलों खिलें कल्पद्रुम की छटाएँ
लहरों में हँसती ऋचाएँ !
तुम्हें न सताएँ कभी शाप ऐसे
ग्रसें पग हमारे ये भव-ताप जैसे
तुम्हें हों शुभंकर दसों ही दिशाएँ
फूलें फलें प्रार्थनाएँ !
तपे घोर कलियुग उपद्रव मचाए
तुम्हें पुण्यसलिले तपन छू न पाए
उनचास पवनों में उमड़ें घटाएँ
सरिगान मल्हार गाएँ !!
--अश्विनी कुमार विष्णु
२८ मई २०१२ |