सुरसरि के तट की वो शाम
शीतलता ओढ़ चली घाम
स्वर्ण-पत्र मंडित सी धूप
गंगा का वो अनुपम रूप
पुलकित दिगंत हो गए
लो हम भी संत हो गए
अंजुरी भर गंगा का नीर
मज्जन को आतुर थी भीर
डुबकियों के क्रम जो चले
अनथके से वो सिलसिल
पापों के अंत हो गए
लो हम भी संत हो गए
श्रद्धा के दौने में फूल,
कर जोरें करना कबूल
तैर गए सलिला के कूल
पावन सा जल का दुकूल
मन खिले वसंत हो गए
लो हम भी संत हो गए
गंगाजल अमृत सा नीर
पुरखों के तर्पण की पीर
पापों को धोने का जोश
जय गंगा मैया उदघोष
पुण्य जब अनंत हो गए
लो हम भी संत हो गए
-रमेशचंद्र शर्मा "आरसी"
२८ मई २०१२ |