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एक अनूठी संस्कृति





 

एक अनूठी संस्कृति, गौरव का इतिहास।
धन्य भाग्य भारत धरा, जहाँ सुरसरि वास।।

गोमुख से चलती चलीं,बनकर तारनहार।
प्यासी धरती का किया, गंगा ने उद्धार।।

आकुल गंगा कह रहीं,मेरी सुनो पुकार।
बहने दो संसार में, निर्मल जीवन धार।।

जिसकी खातिर तज दिया, गंगा ने घर-द्वार।
उस जग ने विस्मृत किया, उसका निश्छल प्यार।।

गंगा मैली हो गयीं,चुप ओढ़े संसार।
मां संग कैसा हो रहा, बेढंगा व्यवहार।।

निर्मल गंगा के लिए, चले खूब अभियान।
गंगा मैली ही रही, जारी एक्शन प्लान।।

अलंकरण तो हो गया, हुआ नहीं कुछ काम।
नदी राष्ट्रीय पा गयी, सिर्फ नया पदनाम।।

जिसको देवों ने दिया, मां जैसा सम्मान।
उस गंगा का हो रहा, धरती पर अपमान।।

-सुबोध श्रीवास्तव
४ जून २०१२

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