शुष्क पथ को सूँघते
ठेलते निज भार को
आ रही है ढनमनी
ढूँढती शृंगार को,
नभ मौन सूरज क्रुद्ध
चादर धूल की ताने दिशा
संताप में मुख भींचता
तम मेघ पर बरसी निशा
शेष पथ घूर्णित प्रहर है
आकंठ दंश नव ज्ञान का
कौन है ? किसकी धमक से
नभ रुप धरता ध्यान का ?
ऋृंग चढ़ बैठा भगीरथ
बोतलें भर नीर से
धुंध के अवलंब पोषित
सुरसरि मन पीर से
मृग सिरफिरा। क्या खोजता है ?
कस्तूरी ? या घास को ?
शैल पर दोनों नहीं है
और सुरसरि तट ?......
-राजेश कुमार झा
४ जून २०१२ |