नाम गंगा का बदल दो यह नदी बदली हुई है
पाप धो-धो कर सभी के यह बड़ी गंदली हुई है
भूल जाओ थी कभी यह साफ़ सुथरी-सी सुनीरा
शहरियों के पान की अब पीक-सी उगली हुई है
बहुत मुर्दे खा चुकी है मरघटों की यह सहेली
रोज़ गन्दी नालियां पीकर इसे मतली हुई है
अब न धारा या तटों की गंदगी में फर्क कोई
अंग पहले ही गले अब कोढ़ में खुजली हुई है
पूजते क्या ख़ाक सब जो डालते कचरा नदी में
कह रहे देवी जिसे पैरों तले कुचली हुई है
पास शहरों के गुज़रते ही हमेशा सूख जाती
इस कदर आबादियों से यह डरी दहली हुई है
संग रहकर आदमी के रोग सब 'गौतम' लगे हैं
होश में रहती न भटकी रास्ता पगली हुई है
गौतम सचदेव
२८ मई २०१२ |