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गंगा
मइया |
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'गंगोत्री में पलना झूले आगे चले बकइयाँ
भागीरथी घुटुरवन डोले शैल-शिखर की छइयाँ
छिन छिपती, छिन हौले किलके
छिन ता-झाँ वह बोले
अरबराय के गोड़ी काढ़े
ठमकत-ठमकत डोले
घाटी-घाटी दही-दही कर चहके सोनचिरैया
पाँवों पर पहुड़ाकर परबत गाये खंता-खैयाँ
पट्टी पूज रही है
वरणाव्रत की परिक्रमा कर
बालों में रूमाल फेन का
दौड़े गाये हर हर
चढ़ती उमर चौंकड़ी भरती, छूट गई लरिकइयाँ
भली लगे मुग्धा को अपनी ही प्यारी परछइयाँ
दिन-दिन अँगिया छोटी पड़ती
गदराये तरुणाई
पोर-पोर चटखे मादकता
लहराये अँगड़ाई
दोनों तट प्रियतम शान्तनु की फेर रहीं दो बहियाँ
छूट गया मायका बर्फ का बाबुल की अँगनइयाँ
भूखा कहीं देवव्रत टेरे
दूध भरी है छाती
दौड़ पड़ी ममता की मारी
तजकर सँग-संघाती
गंगा
नित्य रँभाती फिरती जैसे कपिला गइया
सारा देश क्षुधातुर बेटा, वत्सल गंगा मइया'
- उमाकान्त मालवीय
१७ जून २०१३ |
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