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वे दिन भी क्या दिन थे

 


 
वे भी क्या दिन थे अहा!
बेफिक्र मस्ती के सुहाने
बैठकर लढिया में
जाते थे सभी गंगा नहाने

आठ दिन कतकी से पहले
गाँव का टोला मुहल्ला
डूब जाता रौनकों में
दुःख हो जाता निठल्ला
घर लिपे अजिया के हाथों
धार लेते नये बाने

और उस दिन चुलबुली
मासूम जिद करती उगाही
रात भर पकवान पूड़ी
के लिए चढ़ती कड़ाही
कंठ कल सीता स्वयंवर
के सुनाते मधुर गाने

पीठ पर झूलें गले में
घंटियाँ सींगे रँगाये
चक्रवर्ती रथ विजय का
वृषभ कंधों पर उठाये
पार कर वन खेत नदिया
पहुँच ही जाते ठिकाने

आज भी चलचित्र सा
वह दृश्य नयनों के पटल पर
आस्था का एक जमघट
पुण्य सलिला हृदय तल पर
एक डुबकी में लगे त्रयताप
की गठरी डुबाने

विष्णुपद पाताल राजा बलि
पितामह का कमंडल
नृप भगीरथ शिव जटा
गंगोत्री की कथा अविरल
मन कथावाचक सरीखा
स्वयं को लगता सुनाने

-राम शंकर वर्मा
१७ जून २०१३

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