अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अपना दुख कब कहती गंगा

 

 
स्वर्ग छोड़कर
चट्टानों में, वीरानों में बहती गंगा
दुनिया का संताप मिटाती खुद कितने दुख सहती गंगा

रहे पुजारिन
या मछुआरिन सबसे साथ निभा लेती है
सबके आँचल में सुख देकर सारा दर्द चुरा लेती है
आँख गड़े या फटे बिवाई अपना दुख कब कहती गंगा

चित्रकार
शिल्पी माँ तेरी छवियाँ रोज गढ़ा करते हैं
कितने काशी संगम तेरे तट पर मंत्र पढ़ा करते हैं
सागर से मिलने की जिद में दूर-दूर तक दहती गंगा

गाद लपेटे
कोमल तन पर थककर भी विश्राम न करती
अभिशापित होकर आयी हो या तुमको प्रिय है यह धरती
कुछ तो है अवसाद ह्रदय में वरना क्यों चुप रहती गंगा

-जयकृष्ण राय तुषार
१७ जून २०१३

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter