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धारा ठिठकी सी है

 


 
कृतघ्नता के ठूँठों से
छीजती रेह
और मैल से बने
प्रच्छन्नता के द्वीपों के बीच
सहमी, सिकुड़ी धारा
ठिठकी सी है।

यहाँ
प्रातः की किरनें
उजास नहीं फैलातीं,
खो जाती हैं
स्याह लहरों में;
चाँदनी थिरकती नहीं
कतराती है
कीच की परतों पर
पाँव धरने से।

धारा खीजती है
पर
खामोश है दोहन पर।
प्रवाह सरस, सरल नहीं
भौंचक है
अपने प्रारब्ध पर।
पाँव थके हैं
लेकिन
छाती पर उगे
ईंट के जंगलों से
वेदना दिखती नहीं।

बस
कभी कभी
रात के सन्नाटे में
एक कराह प्रतिध्वनित होती है
’हे भगीरथ!
तुम मुझे कहाँ ले आए?’

- बृजेश नीरज
१७ जून २०१३

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