सिमट
गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी
गगन के बदन में फिर नयी एक दमक आयी।
दीप कोजागरी बाले कि फिर आवें वियोगी सब :
ढोलकों से उछाह और उमंग की गमक आयी।
बादलों के
चुम्बनों से खिल अयानी हरियाली,
शरद की धूप में न्हा-निखर कर हो गयी है
मतवाली।
झुंड कीरों के अनेकों फबतियाँ कसते मँडराते
:
झर रही है प्रान्तर में चुप-चाप लजीली
शेफाली।
बुलाती ही
रही उजली कछार की खुली छाती -
उड़ चली कहीं दूर दिशा को धौली बक-पाँती।
गाज, बाज, बिजली से घेर इन्द्र ने जो रक्खी
थी -
शारदा ने हँस के वो तारों की लुटा दी थाती।
मालती
अनजान भीनी गन्ध का है झीना जाल फैलाती
कहीं उसके रेशमी फन्दे में शुभ्र चाँदनी
पकड़ पाती!
घर-भवन-प्रासाद खँडहर हो गये किन-किन लताओं
की जकड़ में
गन्ध, वायु, चाँदनी, अनंग रहीं मुक्त
इठलाती!
साँझ! सूने
नील में दोले है कोजागरी का दिया;
हार का प्रतीक - 'दिया सो दिया, भुला दिया
जो किया!'
किन्तु - शारद चाँदनी का साक्ष्य - यह संकेत
जय का है -
प्यार जो किया सो जिया; धधक रहा है हिया,
पिया!
- अज्ञेय |