यहाँ इस इस
प्रेक्षागृह में
पास पास होना यकीन भी है
और गर्मी भी
यही आदमी की पहचान भी है
बाहर पेड की
पत्तियाँ झड गयी हैं
हवा सिर्फ ठन्ड और तन्हाई के सिल सिले में
हैं
आदमी इसी ऋतु में काँपता है
सूर्य कह देने से
किसकी कँप कँपी मिटती है?
बाहर शायद
अब बूँदा बांदी होने लगी है
वृक्ष के लिए सम्भव भी हो
एक बेहतर ऋतु की प्रतीक्षा
लेकिन आदमी
इस बूँदा बांदी और पत्रहीन वृक्ष के नीचे
क्या करे?
आदमी का
भाग्य भी क्या है?
एक फटे कम्बल के नीचे काँपते रहना
और उसी के नीचे एक भविष्य की धड़कन सुनना
और इन्तजार करना भी
- नन्द
चर्तुवेदी
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