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मेघों के
दिन गए, शरद ने
बिखरायी मुसकान।
लगे सुहाना
सफर दूर का
लगे न तन पर घाम,
लिखे चाँदनी चुपके चुपके
प्यार रात के नाम।
झरने-पर्वत, नदी-सरोवर
खूब बढ़ाते मान।
मेघों के दिन गए, शरद ने
बिखरायी मुसकान।
बहती हवा
लिए शीतलता
खिलें प्राण के फूल,
जी में ऊब बढ़ाने वाली
दिखती कहीं न धूल।
सोन चिरैया खुशियों वाली
भरती रोज उड़ान।
मेघों के दिन गए, शरद ने
बिखरायी मुसकान।
बन उदार
सौगात लुटाती
हरसिंगार की डाल,
कहीं न चलती कठिन शिशिर की
गहरी कोई चाल।
शहर-गाँव से गलियारे तक
सुख के होते गान।
मेघों के दिन गए, शरद ने
बिखरायी मुसकान।
-रामसागर
सदन
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