हेमन्त-शिशिर का
शासन,
लम्बी थी रात विरह-सी।
संयोग-सदृश लघु वासर,
दिनकर की छवि हिमकर-सी।।
निर्धन के फटे
पुराने
पट के छिद्रों से आकर,
शर-सदृश हवा लगती थी
पाषाण-हृदय दहला कर।।
लगती
चन्दन-सी शीतल
पावक की जलती ज्वाला।
वाड़व भी काँप रहा था।
पहने तुषार की माला।।
जग अधर विकल
हिलते थे
चलदल के दल से थर-थर।
ओसों के मिस नभ-दृग से
बहते थे आँसू झर-झर।।
यव की कोमल
बालों पर,
मटरों की मृदु फलियों पर,
नभ के आँसू बिखरे थे
तीसी की नव कलियों पर।।
घन-हरित चने
के पौधे,
जिनमें कुछ लहुरे जेठे,
भिंग गये ओस के बल से
सरसों के पीत मुरेठे।।
यह शीत काल
की रजनी
कितनी भयदायक होगी।
पर उसमें भी करता था
तप एक वियोगी योगी।।
-
श्यामनारायण पाण्डेय ( हल्दीघाटी से) |