पाँच दोहे एक मुक्तक

 

 
शब्द चुप हैं
देखते हैं भरी आँखों
महामारी ने जना जो
मृत्यु का दुर्दान्त खेला

परस भर से विषैले अणु
घेरते मनु-जीव को
आक्रमण कर लीलते हैं
चेतना के दीव को

रोग, रोगी, चिकित्सालय
आपदा भयभीत सब
"सामने अदृश्य रिपु है
पा सकेंगे जीत कब?"

हर निदानी दृष्टि चाहे
शोध के निष्कर्ष को
प्रश्न बनते हैं चुनौती
उत्तरी आदर्श को

हर हवा सन्देह में है
हर मनुज घुटता धुआँ
राह मंज़िल में दिखे बस
मौत का अन्धा कुआँ

शब्द चुप हैं
देखते हैं भरी आँखों
निरी सहमाती खड़ी आ
ख़ौफ़ की साकार वेला !
शब्द चुप हैं !
-
चौक के या नौकरी के
श्रमिक घबरा कर भगे
पाँव-पैदल जा रहे घर
हर किसी से ही ठगे

गर्भ में पाले समय को
एक श्रमिका घिसटती
भूख से सूखी अँतड़ियाँ
और जल को तरसती

माँगता शिशु दूध है,पर,
पिता दे पाता रुदन
थके कन्धों पर उठाये
प्रिया सँग पूरा अयन

ढो रही ठठरी हृदय को
नहीं चल पाते क़दम
मार्ग में ही फेफड़े का
हो चला लो इत्यलम्

शब्द चुप हैं
देखते हैं भरी आँखों
गाँव सकुशल पहुँचने को
झमेला दर है झमेला !
शब्द चुप हैं !
-
तन हुए हैं, शव, चतुर्दिक्
प्रश्न है, अन्तिम सिला
दरस का या परस का भी
नहीं अवसर है मिला

पुत्र बिन संस्कार अन्तिम
प्रिया बिन छुटता सदन
मित्र सम्बन्धी बहुत, पर
एकला ही है गमन

बिना अर्थी बिना काँधे
तोड़ धागा पाश का
चिता को होता समर्पित
एक बोरा लाश का

रामनामी सत्य गूँजे --
बिन, बुझा जलता दिया!
बिन बिरादर क़ब्र मिट्टी
कौन पढ़ता मरसिया !

शब्द चुप हैं
देखते हैं भरी आँखों
बढ़ रहा नित विश्व भर में
शवों का भयभीत मेला !
शब्द चुप हैं !
-
सजगता दीवार लिखती
प्राण के अनुबन्ध को
दूर से ही पा सकेंगे
निकट के सम्बन्ध को

बस्तियों दर बस्तियों में
एक सन्नाटा लिपा
व्यक्ति का सामान्य जीवन
अकथ दहशत में छिपा

बन्द काशी बन्द काबा
बन्द देवालय सभी
देह है यदि क्रियाशीला
भजन भी होता तभी

बन्द गृह हैं, और हैं मन
अपरिचित एकान्त के
श्रान्त बिन ही कट रहे हैं
विवश दिन विश्रान्त के

शब्द चुप हैं
देखते हैं भरी आँखों
पीर में डूबी कथा का
इस सदी ने मौन झेला !
शब्द चुप हैं !

- सुभाष वसिष्ठ
१ जून २०२०

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