|
महानगर की
गलियों में |
|
|
हाइवे पर
बह रही है स्वेद की गंगा
दिख रहे हैं
काफिले दर काफिले हर ओर,
रात लंबी है बहुत दिखती न
इसकी भोर
राह आधी भी हुई ना
भर गई जंघा
आज मेहनतकश
श्रमिक गण बन गए फुटबॉल,
जा रहे चलते न कोई
पूछता है हाल
हर व्यवस्थादार अब तो
दिख रहा नंगा
गिर चुकीं
लाशें कई, कोई चले भूखा
है सुरक्षित गाँव अपना
रोटला रूखा
पुनः लौटेंगे रहा यदि
सब भला-चंगा
- ओमप्रकाश तिवारी
१ जून २०२०
|
|
|