इक दूजे से बचते लोग

 

 
कैसा अजब सा आया रोग
इक दूजे से बचते लोग

गलबहियाँ तो बात दूर की
आँखें भी अब न होतीं चार
भूल गये सब थपकी-झप्पी
बंद पड़े सब के घर-द्वार

खोल झरोखा झाँक के देखें
पिंजरे में पंछी से लोग

सूनी-सूनी गलियाँ सारी
सूने-सूने हाट बाज़ार
भूख गरीबी राज करे अब
विपदाओं की कड़ी थी मार

साँसों की हो रही नीलामी
गिन गिन बाँटा करते लोग

धरती,अम्बर, ऋतुओं ने पर
अपना-अपना धर्म निभाया
हुई न दूषित धूप-छाँव भी
बदली ने भी साथ निभाया

देवदूत से सेवाकर्मी
मन से वंदन करते लोग

- शशि पाधा
१ जून २०२१

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