सामने बैठी हुई

 

 
सामने बैठी हुई कब से तुम्हारे
और तुम, अखबार में तल्लीन हो

चाय की इन प्यालियों से भाप उठ कर
एक दूजे के गले मिलने लगी है
भोर की शीतल हवा पर बागबानी
चिट्ठियाँ मकरन्द की लिखने लगी है
कुछ नही तो, हम चलो, सुधियाँ उकेरें
छाप मौसम की जहाँ रंगीन हो

सामने बैठी हुई कब से तुम्हारे
और तुम अखबार में तल्लीन हो

चुप लगा कर बैठने से तो भला है
हम लड़ें झगड़ें करें शिकवे शिकायत
एक दूजे की निकालें गलतियाँ ही
उम्र भर करते रहे हैं ये कवायद
कुछ नहीं तो, हम चलो, आँखें तरेरे
स्वाद जीवन का ज़रा नमकीन हो

सामने बैठी हुई कब से तुम्हारे
और तुम अखबार में तल्लीन हो

ज़िंदगी के इस महल में अब नहीं हैं
वे, पुरानी हलचलें पदचाप वाली
एक सन्नाटा लिपट कर रो रहा है
सिसकियाँ हैं मौन के आलाप वाली
कुछ नहीं तो, हम चलो पीड़ा अबेरें
दर्द की शिद्दत जहाँ आसीन हो

सामने बैठी हुई कब से तुम्हारे
और तुम अखबार में तल्लीन हो

- ममता बाजपेई
१ जुलाई २०२०

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