एक प्याली चाय  
 

 
एक प्याली चाय
बनती भूख का आधार जब
मन काँपता है

रात की गम्भीरता में
भूल जाता पीर अपनी
एक सहमा लाड़ला
जो है अभी माँ का दुलारा
नेह की चादर फटी वह
ओढ़ सो लेता समेटे
आँख भर सपना
पिता का जो सुबह का है सहारा
भोर को पाकर सशंकित
देखता लाचार जब
मन काँपता है

ओस में भींगी अँगीठी
माँ जलाती नेह रखती
जल उठाती उसे
जो मुस्कान ले सोया उजाला
एक कुल्हड़ चाय लेता
और कुछ कल की बची को
बाँध ले जाता
वहाँ फिर कूटता रहता मसाला
और उसके हाथ आता
धुन्ध का उपहार जब
मन काँपता है

हर खिलौना जा छिपा है
दूर बादल में कहीं उड़
खेल सकता था
वही जो काम पर दौड़ा बिचारा
हौंस दीमक ने चबाई
जोश सोखा भूख ने जब
रेत में खोया
नदी का चपल धानी-सा किनारा
दूर हो जाता नज़र से
खुशी का त्योहार जब
मन काँपता है

- कल्पना मनोरमा
१ जुलाई २०२०

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