चाय संस्कृति

 

 
चाह है कोई आये तो
संग चाय पियें

कोयल कहीं पेड़ पर
गुनगुनाया ही नहीं
बारिश आ गई मेढ़क
टर्राया ही नहीं
हद यह कि बंद है पट भी
मंदिरों के और
महीनों से घर पर
कोई आया ही नहीं

काश ! कोई बुलाये तो
संग चाय पियें

सबकी दिनचर्या बदली
खानपान बदले
जनम परण मरण के
सारे संस्कार बदले
लॉकडाउन क्या हटा
निकले मन के गुबार
छूटते ही इंसानों के
व्यवहार बदले

इससे अच्छा है परिवार
संग चाय पियें

नौकरी खत्म हुईं और
बचतें खत्म हुईं
कर्ज़ बढ़े गति शिक्षा
व्‍यवसाय की कम हुई
अगर बढ़ा है कहीं तो
हौसला जीने का
चाहे दबाव में कई
जिंदगियाँ खत्म हुईं

जीतेंगे हम यह जंग भी
संग चाय पियें

-आकुल
१ जुलाई २०२०

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter