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भुट्टे मुझको बहुत सुहाते






 

सजे शान से हों डलिया में, खेत में या फिर लहलहाते
भुट्टे मुझको बहुत सुहाते

ले अँगड़ाई आ जाते हैं, जब आता है रिमझिम पानी
फेंक लबादा कई परत का, लाते सबके मुँह में पानी
बड़ी अदा से झटक लटों को
झूम-झूम कर हैं इठलाते

सोने के मोती से सुगठित, पंक्तिबद्ध से दाने उसके
चकित देख अनुशासन उनका, काश कि हम कुछ सीखें उससे
झाँक ओट से बाहर नटखट
बिना कहे सब कुछ कह जाते

मिलजुल रहते पास-पास में, साथ सदा रहते अपनों के
नीचे देता बड़ा सहारा, छोटे ऊपर ऊपर रहते
नींव घरों की बड़े हमारे
हमें सँदेशा वह दे जाते

गरम अँगीठी पर जब भुनते, तब दाने खिल-खिल जाते हैं
सोंधी मन-भावन सुगन्ध से, आसपास को महकाते हैं
जीवन तप कर और निखरता
यही राज हमको बतलाते

जैसे-जैसे पकते जाते, तन-मन पत्थर सा बनता है
पर फिर भी उपयोगी रहते, पिस कर ही आटा बनता है
जीवन को यह गूढ मंत्र वह,
अंत समय में भी दे जाते

- अलका प्रमोद
१ सितंबर २०२०

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