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शरबत-सा मन रखना
 
आपस में संताप बहुत है
मौसम में भी ताप बहुत है
ठंडा शरबत-सा
मन रखना

आस लगाए बैठी है पूरी बस्ती
उम्मीदों के बादल जाने कहाँ गए
कौन बताए नए जमाने को आखिर
छप्पर वाले छाँव-खजाने कहाँ गए

कंक्रीटों का दौर नया है
सुविधाओं का ठौर नया है
पेड़ों जैसा
जीवन रखना

ओढ़ परस्पर आलोचनाएँ
आलोचना ओढ़कर एक दूसरे की
आपस में ही आज हवाएँ लड़ती हैं
छोटी छोटी बातें घर से निकलीं तो
सुरसा के मुंह जैसी दिन दिन बढ़ती हैं

जीने की भी मजबूरी है
लेकिन जीवन से दूरी है
यार नदी
जैसा तन रखना

- डॉ अशोक अज्ञानी
१ जून २०२४

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