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         शरबत सा-मन

 
जेठ महीने में अकुलाए
धरती, जनजीवन
बरसो बूँदों झिमिर-झिमिर-झिम
ले शरबत सा मन

नहीं सुनाई पड़ें किसी की
आहें और कराह
हुआ निरंकुश पारा
जैसे कोई तानाशाह,
बढ़े ताप से घट न जाए
साँसो का दामन

सदमे में है सुबह दुपहर
लू का सहें प्रकोप
पिघल रही है साँझ किचन में
किस पर हो आरोप
सम्मुख भूख खड़ी कुनबे की
ले अपना टोकन

जल के छल से शर्मसार हो
गया नदी का रूप
लहरों के ठीहों पर पनपे
रेतीले स्तूप
हमको तुमको ही करना अब
इसका रंग रोगन

उजड़ रहे हसदेव
विवश गश खाते माटीपूत
भरे पेट मिल कात रहे हैं
जिनके हक के सूत
दिन दूना बढ़ता जाता है
इनका अधोगमन
बरसो बूँदों झिमिर-झिमिर झिम
ले शरबत सा मन।

- अनामिका सिंह
१ जून २०२४

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