अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

प्यार का ये शर्बत
 
गर्मियाँ ज़ब उबल रहीं है
लू जिस्म झुलसा रही है
मैं पर्वतों पर हों आऊँ
जहाँ शर्बत का बहता हो झरना
शिकंजी सी स्वादिष्ट नदी हो
घट भर-भर उसी का लाऊँ

ग़र सामने एक पोखर
लस्सी का बना होता
बर्फ ने पिघल कर उसे ठंडा किया होता
मैं पेड़ नीचे बैठ, कुछ छंद रच लाती
बाबूजी के लिए मटकी भर के लाती

पहाड़ों पर नूर सा है जीवन
सादगी है हर घर जीवन है जैसे मधुवन
शर्बत के मिठास सी है
सबकी वाणी
प्यार है जैसे, बनाया नीबू पानी

उस आत्मीयता को बटोर मैं लाऊँ
इस मतलबी जहाँ में
इत्र बन फैलाऊँ
कुछ प्यार का ये शर्बत
घट भर भर के लाऊँ
बना लो मुझे अपना
ये मन ही मन दोहराऊँ

- मंजुल भटनागर  
१ जून २०२४

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter