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           चार क्षणिकाएँ

 

तपती धूप में
बरगद की छाँव सी
शहर की थकी भीड़ में
सुकूँ भरे गाँव सी
शरबत सी मीठी
तुम्हारी याद है
दर्द के दरिया को
पार कराती नाव सी


उसकी
मासूम सी
खिलखिलाहट पर
निछावर हैं
शर्बत के कई गिलास
तीन क्षणिकाएँ


बहुत
उगल चुके आग
क्या मिला ?
अब जरा मन में /थोड़ी सी
शर्बत सी मिठास
घोल कर देखो


काश
जीवन की यह
आपा-धापी
तनाव,उलझनें
न होतीं हमारे साथ
होते बस तरो-ताजा
करने वाले मीठे-मीठे पल
रूह आफ़ज़ा शर्बत की तरह

- मधु प्रधान  
१ जून २०२४

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