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अगन बरसा रहा है
 
गगन तपती अगन बरसा रहा है
धरा को भी पसीना आ रहा है

कभी लूटी है महफिल आमरस ने
कभी गन्ने का रस भरमा रहा है

भरे बाजार में दौड़ी निगाहें
फलों का जूस केवल छा रहा है

कोई पीता है लस्सी और मट्ठा
किसी को बेल का रस भा रहा है

पना एक बार जिसने चख लिया वो
उसी के गीत गाए जा रहा है

भुला कर चाय कॉफी मन सभी का
शिकंजी देख कर ललचा रहा है

चलो सूरज को भी शर्बत पिलादें
बड़े तेवर हमें दिखला रहा है

- रमा प्रवीर वर्मा
१ जून २०२४

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