बात जलेबी की

 

 
आओ सुलझाएँ हम
उलझी गाँठ जलेबी की
गुथी हुयी आपस में कैसी
बाट जलेबी की

कहाँ सिरा है कहाँ छोर है
पकड़ न पाता कोई
सिर्फ स्वाद में ही खोया
रहता इसके हर कोई
रूप भले हो आड़ा-टेड़ा
पर मीठी ये मन की
इसीलिए तो ज्यों की त्यों है
ठाठ जलेबी की

ऊंगली पकड़े कई पीढ़ियों
के संग चलती आयी
हर मौसम, हर उत्सव - रंगों
में ये सबको भायी
सजी हुयी मिष्ठान्नौ की यों तो
अनगिनत कतारें
नहीं अभी तक बन पायी
पर काट जलेबी की

मेले -ठेले, गुमटी, नुक्कड़
चौराहों की रानी
दुनियाँ रहीं हमेशा इसके
नखरों की दीवानी
नहीं सजी चांदी -सोने के
चमकीले डिब्बों में
जमी हुयी है, लेकिन
अब तक धाक जलेबी की

- मधु शुक्ला
१ अप्रैल २०२२

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