देख जलेबी गोल

 

 


पानी मुँह में आ गया, देख जलेबी गोल।
प्यारी मम्मी आज ही, डाल जलेबी घोल।
डाल जलेबी घोल, चाशनी गुड़ की होना।
मीठी ये अनमोल, मुझे देना भर दोना।
है मीठी मदमस्त, जलेबी मधुर सुहानी।
गर्मागर्म अनूप, देख मुँह आता पानी।
 

रस डूबी उलझी लटें, जैसे गोरी नार।
गर्म जलेबी देख कर, आया उस पर प्यार।
आया उस पर प्यार, हाथ में उसको पकड़ा।
मन मतंग मदमस्त, स्वाद ने मुझको जकड़ा।
उलझी उलझी गोल, गिनाऊँ कितनी खूबी।
लगती सबसे मस्त, जलेबी मन रस डूबी।


जीवन के सम ही लगे, गोल जलेबी गर्म।
दोनों ही उलझे रहें, मगर निभाते धर्म।
मगर निभाते धर्म, सहें दोनों ही पीड़ा।
एक तेल में सिके, एक पथ कंटक कीड़ा।
मधुरिम देते स्वाद, बाँटते ये अपनापन।
मीठा हो व्यवहार, जलेबी हो या जीवन।

- डॉ सुशील शर्मा
१ अप्रैल २०२२
-

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter