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किसी गर्म, कुरमुरी, ज़ायक़ेदार जलेबी को
मुँह में रखने
और उसे गप कर जाने से पहले
उसकी ख़ुशबू और उसके रस का पूरा आनंद लेने के बीच
क्या आपने ध्यान दिया है कि
हमारी भाषा कैसे-कैसे बेखबर अत्याचार करती है?
अगर किसी को आप जलेबी जैसा सीधा कहते हैं
तो ये उसके टेढ़ेपन पर व्यंग्य-भरी टिप्पणी होती है
जबकि सच्चाई यह है कि अपने रूपाकार को छोड़कर-
जिसमें उसका अपना कोई हाथ नहीं है-
वह वाकई सीधी होती है
पहले रस को अपने भीतर घुलने देती है
और फिर बड़ी आसानी से मुँह के भीतर घुल जाती है
जो थोड़ा बहुत कुरमुरापन रहता है,
वह उसका जायका ही बढ़ाता है
कभी चाव से जलेबी खाते हुए
और कभी दिल्लगी में
दूसरों से अपने जलेबी जैसा सीधा होने की
तोहमत सुनते हुए अक्सर मुझे लगता है
कि वह भाषा भी कितनी सतही होती है
जो बाहरी रूप देखकर
किसी से सीधे या टेढ़े होने का ऐसा नतीजा तय कर देती है
जो घिस-घिस कर मुहावरे में बदल जाता है
लेकिन यह नादानी है या सयानापन है?
कि लोग जलेबी को टेढ़ा बताते हैं?
यह जानते हुए कि वह कुछ बिगाड़ नहीं सकती
आम तौर पर बाक़ी पकवानों की तरह
हाजमा भी ख़राब नहीं कर सकती
अगर सिर्फ़ आकार-प्रकार से तय होना हो
कौन सीधा है, कौन टेढ़ा
तो सीधा-सपाट चाकू कहीं ज़्यादा मासूम लगेगा जो
सीधे बदन में धँस सकता है
और जलेबी बेचारी टेढ़ी लगेगी जो टूट-टूट कर
हमारे मुँह में घुलती रहती है।
लेकिन जलेबी और चाकू का यह संयोग
सिर्फ सीधे-टेढ़े के फर्क़ को बताने के लिये नहीं चुना है
यह याद दिलाने के लिये भी रखा है कि
जलेबी मुँह में ही घुलेगी, चाकू से नहीं कटेगी
और चाकू से जलेबी काटना चाहें
तो फिर किसी और को काटने के पहले
चाकू को चाटने की इच्छा पैदा होगी
यानी चाकू जलेबी को नहीं बदल सकता
जलेबी चाकू को बदल सकती है
हालाँकि यह बेतरतीब लगने वाला तर्क
इस तथ्य की उपेक्षा के लिये नहीं बना है
कि जलेबी हो या चाकू-दोनों का अपना एक चरित्र है
जिसे हमें पहचानना चाहिये
और कोशिश करनी चाहिये कि हमारा रिश्ता चाकू से कम, जलेबी से ज़्यादा बने
लेकिन कमबख़्त यह जो भाषा है
और यह जो दुनिया है
वह जलेबी को टेढ़ेपन के साथ देखती है
उसका मज़ाक बनाती है
और सीधे-सपाट चाकू के आगे कुछ सहम जाती है
- प्रियदर्शन
१ अप्रैल २०२२ |