गुझिया-पापड़-चिप्स की, छाई
अजब बहार
लेकिन सर्वोपरि दिखे, गुझिया की मनुहार
गुझिया की मनुहार, सभी को भाती प्रियवर
मची हुई है धूम, आज गुझिया की घर-घर
कहते कवि शैलेन्द्र, झूमते 'गुड्डू- गुड़िया'
साथ गा रहे फाग, सभी जन खाकर गुझिया
घर में गुझिया बनी थीं, गर्मागर्म लज़ीज़
हीरामन के संग में, आये मियाँ अज़ीज़
आये मियाँ अज़ीज़, प्रेम से खायी गुझिया
और चाय के साथ,चली फिर जमकर भुजिया
कहते कवि शैलेन्द्र , खलबली मची उदर में
पड़े हुए हैं मियाँ , तभी से अपने घर में
तबियत संभली नहीं जब, आये ज़िया' हक़ीम
काढ़ा कडुआ था बहुत, जेसे कड़वी नीम
जैसे कड़वी नीम, कि जिसको पीना मुश्किल
इसी बात पर हुई, बहुत बीबी से किलकिल
कहते कवि शैलेन्द्र, पड़े बिस्तर पर शिशुवत
किया चार दिन 'रेस्ट', तभी कुछ संभली तबियत