माँ की रसोई में

 

 
माँ की रसोई में
बन रही है गुझियां
प्रेम रस से पगी न्यारी-न्यारी

भून रही खोया माँ
काट रही मेवे
गूँथ रही मैदा सुबह से ही
बेल रही चाँद सा गोला
खोया भरकर एक-एक चिपकाती
कंगूरे उमेठती माँ
थाल में सजा रही पंक्तियाँ

नरम सफेद ये गुझियाँ
तलकर बनेंगी गुलाबी
मेज पर सज जाएँगी रंगों के साथ
होली की शाम को रंगीन बनाती हुई

नाते रिश्ते आएँगे
होंगी ढेर-सी बतकहियाँ
सजेगी महफिल, होगी कविताई
हर्ष से भर उठेगा मन
हम मिल जुल कर गाएँगे
होली आयी रे कन्हाई रंग बरसे
सुना दे ज़रा बाँसुरी

- मंजुल भटनागर
१ मार्च २०२१

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter