गुझिया ये तर-ब-तर है

 

 
होली है या ज़मीं पर बिखरा हुआ समर है
'गुझिया' गुलाल रंगों का खिल उठा शजर है

है हर गली मोअत्तर हर घर है महका महका
'गुझिया' की सोंधी खुशबू से भर गया नगर है

मावा है प्यार का और मेवा है अपनेपन की
उल्फ़त की चाशनी से 'गुझिया' ये तर ब तर है

गोंठी मुहब्बतों की ये उँगलियों से यारो
माँ अन्नपूर्णा की ममता का भी असर है

माँ ने बनाई गुझिया बहिना ने है सजाई
पत्नी के प्यार की भी दिखती रही लहर है

चाहें गरीब हो या कोई अमीर मंजू
'गुझिया' तो दिखती होली में हर किसी के घर है

- मंजू सक्सेना
१ मार्च २०२१

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter