लोग हैं गरम पकौडे

 
  तले भुने जो बैठे जो हरदम
वही लोग हैं
गरम पकौड़े

बात बात पर खीझ रहे हैं
ढोल अहम का पीट रहे हैं
स्वार्थ घनेरा उनको घेरे
कोई न बैठे उनके नेरे
जीवन का सब रस बेदम है
नारेबाजी बस जीवन है
भुन्नाए जो बैठे हरदम
कहाँ खाएँगे
गरम पकौड़े?

आरामों में पड़े हुए हैं
जाने कैसे बड़े हुए हैं
मेहनत से कटकर भागे हैं
जीवन के उलझे धागे हैं
अपनी किस्मत पर रोते हैं
औरों को रो रो धोते हैं
कभी हठी हैं कभी बावले
कहाँ तलेंगे
गरम पकौड़े?

- पूर्णिमा वर्मन
१ जुलाई २०२४

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