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मिले पकौड़े गर्म |
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१
आशा की जब आँच पर, चढ़े कढ़ाही तेल।
स्वप्न पकौड़े का करे, तब जिह्वा से खेल।।
तब जिह्वा से खेल, नहीं सामग्री पूरी।
बारिश थी भरपूर, आस पर रही अधूरी।।
पीकर खाली चाय, हृदय में भरी निराशा।
मिले चटपटा स्वाद, लगी चटनी को आशा।।
२
मन सावन आषाढ़ बन, करे प्रेम की वृष्टि।
लगे सजन का साथ यों, हुई समाहित सृष्टि।
हुई समाहित सृष्टि, स्वाद जीवन का ऐसा
चाय पकौड़े संग, मधुर चटनी के जैसा।।
उचित रहे अनुपात, लगे तब जीवन पावन।
त्याग समर्पण साथ, बरसता हो मन सावन।।
३
छोटा कोई कार्य कब, नहीं भाव हो हीन।
रोजगार आरंभ कर, उसमें हों तल्लीन।।
उसमें हो तल्लीन, बनाऐं चाय पकौड़े।
ग्राहक जब संतुष्ट, आय फिर सरपट दौड़े।।
चलती रहे दुकान, नहीं जब अंतस खोटा।
देकर अधुना रूप, बड़े में बदले छोटा।।
- अनिता सुधीर आख्या
१ जुलाई २०२४ |
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