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प्यारे शीशम
 
जग कठोर कहता है तुमको पता नहीं क्यों प्यारे शीशम
मुझको तो तुम लगते बिल्कुल कोमल कोमल रेशम रेशम
पात तुम्हारे कितने सुन्दर हो शिशु की ज्यों नर्म हथेली
जिसने निष्ठुर कठिन समय की
नहीं अभी आघातें झेली

हरी पीत - सी आभा वाली गुच्छों में लटकी हैं फलियाँ
जैसे मचल रहीं कुछ पाने छोटी छोटी कई उँगलियाँ
भीषण आतप में भी पत्ते डोल रहे हैं लहर लहर कर
खेल रहे हों जैसे बच्चे निर्भय हो
आँगन में जी भर

वर्षा में पानी की बूँदें अंजलियों में भर टपकाते
झूम रहे हैं पत्ते सारे संग हवा के हँसते गाते
शीत लहर जब बही जोर से काँप उठा पत्तों का अंतर
हाथ हिला अब विदा ले रहे आने को ही
है अब पतझर

पत्ते झर झर गिरे धरा पर किन्तु मौत का नहीं तनिक भय
ठूँठ हो गया पेड़ लुटाकर पत्तों का सारा ही संचय
और एक दिन झिलमिल लौ से शाखों पर किसलय लहराए
छाया के भी गहरे घेरे धरती के
आँचल पर छाए

टिका तने से रूप तुम्हारा देखा करता मैं घण्टों तक
चाह रहा था तुमको शीशम प्राणों में मैं भर लूँ भरसक
किन्तु काट ले गए अचानक कुछ मानव आ तना तुम्हारा
तुमसे भी बढ़कर उनको था लकड़ी से
अर्जित धन प्यारा

स्वार्थ - अंध यह जग कठोर है जो कठोर तुम को है कहता
रे शीशम ! कब लोभ देखता औरों के आँसू को बहता
मन मेरा कहता है शीशम ! तुम धरती से फिर फूटोगे
सहकर भी सौ घाव देह पर
मन से कभी नहीं टूटोगे

- सुरेश चन्द्र "सर्वहारा"
१ मई २०१९

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