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घर के पास खड़ा जब शीशम
 
घर के पास खड़ा जब शीशम
तो बोलो फिर काहे का गम

सूर्य जेठ में तपे प्रखर जब
झुलसाये तन ज्यों अगन लगे
सघन छांव में तेरे बैठकर
दूर हुई सी हर थकन लगे!

पीत हरित आंचल फैलाये,
लगता तब तू जननी के सम

सावन में जब झूमें बादल
डाल-डाल तेरा लहराये
पवन झकोरा नेह नीर से
तेरे कोमल पात सहलाये

मन वीणा को करता झंकृत
बूंदों का सुर मद्धम मद्धम

चाह वसंत की होती सबको
आता है पर पहले पतझर
जीर्ण-शीर्ण हो सारे पत्ते
पथ पर जाते बिखर बिखर

आ जाता है पल में ही फिर
नवल पात-फूलों का मौसम

शीशम तू तो बड़ा कीमती
तुझसे घर की सब रौनक है
रहता जिसके पास सदा तू
किस्मत उसकी गयी चमक है

लोग कहें पाषाण तुझे पर
मैं कहता हूँ रेशम रेशम

भौतिक सुख के वशीभूत हो
मानव आज हुआ है निर्मम
क्षत विक्षत सा तुझे देखकर
हो जाती ये आंखें भी नम

वृक्ष बहुत हैं इस धरती पर
पर शोभा है तेरी अनुपम

- श्रीधर आचार्य "शील"
१ मई २०१९

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