अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

गाँवों के बाँधों पर शीशम
 
गाँवों के बाँधों पर हँसता
रहता था शीशम
बाँध कट गये

लिये छरहरे तने ढंग वे
जीने का सिखलाते
जेठ दुपहरी के आँवाँ में
शीतलता छत छाते
हरियाली की गमछी ओढ़े
रहता था शीशम
साँप डट गये

झुकी बबूलों की टहनी से
गले मिला है हेकड़
मौसम के सँग रहे ठठाते
उगे धरा के बेझड़
सदा समय की ताक-झाँक में
रहता था शीशम
बाँस हट गये

फूलों की डाली पर फागुन
झूल रहे हैं झूले
सूरज की हर नेत्र रश्मि के
समझौतों को भूले
मानवता का पंख डुलाता
रहता था शीशम
गाँज घट गये

- शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'
१ मई २०१९

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter