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और सुनाओ शीशम कक्का
 
यों ही पूछा चलते-चलते -
और सुनाओ
शीशम कक्का
हँसा जोर से पेड़

जड़ें भूमि को उर्वर करतीं
पत्ती देतीं चारा
लकड़ी से फ़र्नीचर बनता
पर अपनों से हारा
पूछ रहे हो हाल कि या तुम
मुझे रहे हो छेड़

भूतल-जल भंडार बढ़ातीं
पत्ती सँग शाखाएँ
महँगी मेरी लकड़ी बिकती
पूरी हों इच्छाएँ
करूँ सुरक्षित पथ-परिसर मैं
औ' खेतों की मेड़

बोलो कब तक साथ रहूँ यों
कब तक सहूँ ढिठाई
मुझे रोपना भूल गये तुम
करते मात्र कटाई
अपनी तो बस हालत ऐसी
जैसे बकरी-भेड़

तरह-तरह की औषधि देकर
भी ना हुआ तुम्हारा
हर अवसाद पिया है मैंने
देकर तुम्हें सहारा
धीरे-धीरे धरती से तुम
मुझको रहे खदेड़

- डॉ. शैलेश गुप्त 'वीर' 
१ मई २०१९

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