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शीशम उतरा जीवन में
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चुपके चुपके
सेंध लगाकर
दोष घुसा ज्योंही तन में
बहु-रोगों का सफल चिकित्सक
शीशम उतरा जीवन में
सड़क किनारे खड़ा-खड़ा वो
झाँक द्वार से पूछा करता
“क्यों रोती हो बहन बता, मैं
भी हो सकता हूँ दुख-हर्ता”
देख आस का भानु चमकता
फूल खिले बंजर मन में
“क्या बतलाऊँ भ्रात! किस तरह
दर्द गात में मैंने पाला
जाने कब क्या भूल हुई जो
वात-रोग ने डेरा डाला
ढूँढा करती हूँ निदान अब
हो अपंग भर- यौवन में”
“अगर यही है व्यथा तुम्हारी
रुदन वृथा है, भगिनी प्यारी
प्रातः पात चबा दस मेरे
जल सेवन रखना नित जारी
असुर-नाश हित, हुए अवतरित
‘सुर’ भी तो जग-प्रांगण में!”
“अहा देव! क्या हुआ करिश्मा
अंग-अंग हो चला खुशनुमा
लगता है ज्यों शुष्क रेत में
हरियाला नव अंकुर जन्मा
अब तो जन पूजेंगे सारे
रोप तुम्हें वन-उपवन में”
- कल्पना रामानी
१ मई २०१९ |
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