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बैसाख की दुपहरी
 
गेहुँ के उन दानों के भीतर
भ्रूण की तरह छुपी है उसकी खुशी
खलिहान में भोर के सूरज सी बिखरी रास को
समेटने की मेहनत की चमक चेहरे पर है

बैसाख की चढ़ती गर्मी
और उसकी अलसा देने वाली दुपहरी में
वह नम बालों को सूखने के लिए खुला छोड़
पास खड़ी शीशम के कंधों पर सिर टिका
सहेली नींद की बाहों में चली गई है
इस तरह शीशम के नीचे एक स्याह और नम
आसमान उतर आया है
अखरोट के कटोरे उसकी बड़ी बड़ी आँखें
नींद में भी पूरी तरह मुँदने से रह गईं हैं
और आँखों के उस खुलेपन से दूज के
दो चाँद झाँक रहे हैं

चिलचिलाते आसमान को बेहद चिढ़ है
कि धरती से बमुश्किल दो हाथ ऊपर
शीशम की उस छाँह में
क्योंकर है एक और आसमान
और तिस पर भी क्योंकर हैं उसमें
दो दो चाँद मुस्कुराते हुए
वो भी साँझ से पहले

- प्रमोद
१ मई २०१९

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