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शीशम की छाँव |
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कुछ ओस झरी
थी
फूटी हैं नव कोंपलें आज
उम्मीद जगी थी हर पल
डालियाँ इतरा रहीं फैला रही सुगंध
पतझड़ को बिसरा कर, झूम रहीं अंनग
बूढ़े से शीशम पर उतर रहा बसंत।
डालियों में कौमार्य झलक रहा
सूरज सतरंगी बन दहक रहा
दूर तक निगाह है, शीशम भी उचक रहा
कोई बिछड़ा, फिर गाँव लौट रहा
शीशम की छाँव तले, इंतज़ार है सुखत
शीशम पर प्रेम बन उतर रहा बसंत।
कुछ पत्ते खड़के
हवा ने छेड़ दिया सायं सायं का राग
भुला गीत उभर आया, बन के धड़कन
मन में उतर गया, कुछ खालीपन
इन सुनी घड़ियों में भी
शीशम रहा आर्द्र विनम्र
जैसे पूछ रहा हो, कहाँ खोया था, उसका बसंत।
शीशम की छाँव तले, पगडंडी थी मुखर
प्रेम बन मिला वो, सुरमई सपनें हुए मलंग
अनहद राग बजे, तरंगित हुआ था मन
मधु रस थोड़ा था, तृष्णा थी अनंत
शीशम पर, प्रेम बन उतर रहा बसंत.
- मंजुल भटनागर
१ मई २०१९ |
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